AKULAHTE...MERE MAN KI
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मेरी जीने की जिजीविषा इतनी गहरी है
उतनी शायद कुछ कर गुजरने की नहीं
जितना बिस्तर पर लेट खोआब बुनने की आदत है
उतनी कमरे के जाले साफ़ करने की नहीं
सहयात्री, सहकर्मी, दोस्त , परिवार
घर में, क्लास में, ट्रेन में, बस में
रस्ते पे, रिक्से में, ऑटो पे
जब भी दिखा है चेहरा
अनायास ही जिज्ञासा के कीड़े
बुल्बुलाने लगते है
उनकी आँखों में
उनके मन की कुलबुलाहट को पढ़ने की कोशिश करती हूँ
फिर जानने की कोशिश करती हूँ
क्या ये सोच रहे है
ये सब सुखी है क्या
क्या ये झेल रहे है जिंदगी के झंजवातो को
और कभी खो जाती हु अपनी मन की उलझनों में
और भूल जाती हु बस से मेट्रो से उतरना
या छुट जाती है बस
ऑफिस में पहुचने की जल्दी नहीं होती
जीतनी लोगो की जिंदगियो को जानने की जिगयासा
मेरी जीने की जिजीविषा इतनी गहरी है
उतनी शायद कुछ कर गुजरने की नहीं
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