AKULAHTE...MERE MAN KI
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हर बार क्यूँ ऐसा होता है
जब भी कुछ अपना सा लगता है
वो होकर भी अपना नहीं होता है
एक दूरी सी बन जाती है
एक निराशा सी घिर जाती है
समय की धार में सब यु बह जाता है
जैसे बंद मुठी से फिसलती रेत
जीवन रीता रीता सा लगता है
सब फीका फीका सा लगता है
नींद नहीं आती है
ख्वाव रूठ जाते है
अपने बेगाने लगते है
हर बार क्यूँ ऐसा होता है
हर कोशिश बेकार जाती है
हर दुआ हवा हो जाती है
शब्द शूल बन जाते है
जाने अनजाने पापो का
लेखा जोखा ले कर हम बैठ जाते है
या फिर सोचते है
है कोई पिछले जनम की भूल
हर बार क्यू ऐसा होता है
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