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भेड़िया आया भेड़िया आया…

AKULAHTE...MERE MAN KI
AKULAHTE...MERE MAN KI
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ये आलेख मैं  अनिल कुमार  अलीन जी  के आलेख “महिला  और  सुरक्षित”   से शुरू हुई परिचर्चा  को आगे बढ़ाते हुए शुरू कर रही हूँ……….

 

 

भेड़िया आया भेड़िया आया…

हरेक वर्ष महिला दिवस पर हमारा  बुद्धिजीवी वर्ग स्त्री स्वतंत्राता , सुरक्षा , अधिकार  . आदि आदि पर हजारो पन्ने रंगता है………प्रिंट .मिडिया अपने तरीके …और इलेक्ट्रोनिक मिडिया अलग तरीके से और जब ये सब चल रहा होता है.तो कही कोई मेट्रो सिटी में कोई स्त्री अपने सहकर्मी के कामुक निगाहों से खिन्न हो रही होती है., तो कही छोटे कसबे  में विद्यालय जाती १२ साल की बच्ची अपने विकसित होते हुए अंगो को रस्ते से गुजरते हुए मनचलों के निगाहे से बचाते हुए स्कूल पहुच रही होती है पर वंहा  भी  अगर खुदा न खास्ता ३ से ४ पुरुष  शिक्षको में कोई एक भी  अगर कामुक है  तो वो सारा समय  स्कूल में अपने आपको  उस भूखे प्यासे  गुरु देव  की खा जाने  वाली   निगाहों से ही  बचना ही सारा दिन ध्येय   उसका बना रहता है…….. अब चले हम गाव की तरफ तो शायद   वहां    कोई पाँच साल की बच्ची अपने  पड़ोस के मनोरोग पीड़ित   काका  , ताऊ के   कामान्धता की शिकार हो रही होती है………………और समाज मुह फाड़े आश्चर्य   से भर उठता है…और मैं यंहा कोई कोरी कल्पना से ये सब  नहीं लिख रही आप सब इन दुर्घटनाओ से आये दिन वाकिफ हो रहे है……………………………

इन घटनावो से यही लगता है आधुनिक सुख सुविधाओं से लैस ये समाज में अब भी आदिम काल के शिकारी जिसे आप मनुष्य सरीर में भेरिया कहो या तेंदुआ कहो अपनी असभ्य आदिम काल से ही स्त्री लहू मांस की भूख लिए घूम रहा है और अँधेरा होते ही निकल पड़ता है शिकार केलिए मोका मिलते ही दबोच लेता है……………………………………..और ये कही भी किसी भी वेश में हो सकता है आधुनिक समाज में उसे रहना है छिप कर,  उसका शिकार सिर्फ स्त्री होती है जो किसी भी उम्र की हो सकती है ……ये शिकारी छोटी बालिका का पडोसी का भैया , ममेरा ,चचेरा भाई, चाचा ,ताऊ , स्कूल टीचर , रस्ते में आते जाते लोग में से कोई एक, स्कूल  वाला नोकर, चपरासी ,ऑफिस में  स्त्री का बास, सहकर्मी, सहयात्री,  या फिर मजदूरी  करने जाने वाली का ठेकेदार, काम दिलाने वाला बिचौलिया, देवर, जेठ, ससुर,…………..किसी भी रूप में किसी भी उम्र में स्त्री सुरक्षित नहीं है………स्त्री शारीर मिला है उसे तो उसे इसका परिणाम भुगतना ही है……….चाहे वो किसी भी श्रेणी की हो, समुदाय की , या किसी भी धर्म की  की हो……….परिवेस अलग होने से शारीरिक और मानसिक यातनाओ में १९ और २०  का फर्क हो सकता है…………पर मानसिक प्रतारणा तो झेलना ही है……….अगर मिडिल क्लास है…की है तो मानसिक और गरीब है तो शारीरिक और मानसिक दोनों……वयंग कटाक्ष दुआर्थी बातें …..उसके कोमल अंगो को लेकर चटकारे लेकर सुनी और सुनाई जाती…है….
बहुत से ऐसे आत्मा में धंसे जखम होते है जिसे न वो व्यक्त कर सकती है न बता सकती है……..क्योकि वो मानती है और जानती है ……स्त्री है………तो सहना है…..अगर कहेगी तो तमाशबीन ज्यादा मिलेंगे ……………………………………. सिर्फ तमाशा के सिवा कुछ भी हासिल नहीं कर पाएंगी……………………………………….

अब सवाल ये उठता है…क्या मुठी भर हम और आप जैसे संवेदनशील लोग परिचर्चा कर लेंगे और कुछ लोग आप से सहमत हो जायेंगे और समाज में घटनाये घटनी बंद हो जाएँगी…….कितने . कानून बन गए है पर  कितना प्रतिशत पुरुसको की मानसिकता बदली है….. कानून बन जाने से अपराध बंद नहीं हो जाता हाँ बस अंकुश लग जाता है………

फिर हमारी आपकी बाते सिर्फ वही मुठी भर लोग पढेंगे और सुनेगे जो अपने आप ही समझदार है और सभ्य है और इन मुदो पर संवेदनशील भी है……………………

फिर आप किसे समझायेंगे …क्या हम आप उस बहुरूपिये को पहचानते है……..नहीं….जब वो शिकार कर चूका होता है…..जब किसकी की दुनिया उजड़ चुकी होती है….तब हमे पता चलता है……९५% घटनाये….तो सामने ही नहीं आती…..क्योकि ये भेड़िया तो कोई अपना ही होता है……….शरीर   के  जख्मो का तो भरकस इलाज किया जा सकता है पर उसकी आत्मा का क्या….उसके मन मस्तिक पे पड़े उन घावों का. क्या……..उसके कोमल मन से उतरकर कर लहू में  प्रवेश   कर गयी घृणा का क्या……कितनी भी सजा देदो उस शिकारी को ….को …क्या उस बालिका या महिला को हम स्वस्थ जीवन ……लोटा पाएंगे……क्या वो जीवन की खुशिया कभी मह्सुश कर पाएंगी………

 
जरुरत है……साहसी माताओ की जो अपने. बच्ची को इतना साहसी बनाये…..की इन भेडियो से सावधान रहे……….और मुह तोड़ जवाव दे….. और जब भी किसी मानसिक यातनाओ का सामना करना पड़े तो उसे अपने शब्दों का साहस भरा अवलंबन दे…..ताकि अवसाद से निकल कर…….फिर से जिंदगी  के विसंगतियों  का  डटकर सामना कर सके……..आज भी मै जब किसी मानसिक प्रतारणा से अवसाद ग्रसित होती हूँ …..तो सिर्फ मेरी माता जी और आदरणीय दीदी   का साहस भरा शब्दों  का  अवलंबन  और उनका ममता भरा स्पर्श ही…..मुझे फिर से उठ खरा होने में कारगर  साबित होता है….. ……और कुछ भी नहीं………..
  
क्योकि  हजारो साल से ये सब चलता आरहा….भेड़ियों का रूप बदल गया है पर उसकी मनोवृति नहीं….हम आप किसे बदलेंगे …..नोकर को, कामांध टीचर को, गाव के अनपढ़ चाचा , भाई को जो अखबार पढना भी नहीं जानता , कुत्सित मानसिकता से सड़े  गले  उस सहकर्मी और बास को जो अपने काम से फ्री होकर अपनी महिला सहकर्मी के बारे में मंग्रहंत कामुक कहानी बनाकर चटकारे लेकर सुनता है और सुनाता है…और गाहे बगाहे काम के बहाने उसके करीब आने की कोशिश करता है या उसे कुछ फाइल पकड़ाने के बहाने कामुक स्पर्श   करता है………….और अखवार में छपे स्त्री पे गुजरती खबरों पे बढ चढ़ कर चर्चा में  हिस्सा भी लेता…..है……………………………….बहुत जटिल है ……….कोई समाधान निकलना……………. ऐसे असंख्य चेहरे और मुखोटे में  हमारे बिच बैठे है………आप  लाचार थे लाचार है…..कामंधता एक  नाइलाज मनोरोग है………किसके अंदर कब सर उठा के …..आजाये ….पता नहीं….
 
 
ये मिडिया वाले तो जब भी कोई दुर्घटना प्रकाश में आती है……तो मिल कर  भेड़िया आया भेड़िया  आया का गुहार लगाते है….और फिर शांत हो जाते है…….

 

हमेशा से बुद्धिजीवी वर्ग  , समाज  सुधारको  और चिंतन मनन करने वाले मनीषियों.. ने समय समय पर स्त्रियों के सामाजिक उथान के लिए …कई काम किये…..कई प्रथाओ को…कानून ख़तम किया….आगे बढ कर उनका उन्मूलन किया…..बाल विवाह. प्रथा .., विधवा विवाह प्रथा आदि….. स्त्री शिक्षा के लिए , समाज में बराबरी के लिए समाज को प्रेरित किया……पर …. कामंधता और उसकी जड़े …पहले भी मोजूद  थी और आज भी….क्यों की ये कोई प्रथा नहीं है….मनोरोग है…

 

    

 

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