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वो गाँव कहाँ है …..

AKULAHTE...MERE MAN KI
AKULAHTE...MERE MAN KI
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वो गाँव कहाँ है
वो अमराई कहाँ है
वो झूले पे झुलना
फाग , कजरी औ चैता गाना
वो पनघट कहाँ है
भरी दुपहर में
भैंसों के संग बालको का नहाना
वो पानी की छप छप
और कपडे की धप्प धप्प
वो कोयल की कु कु
और मेढक की टर्र टर्र
जैसे कोई नया राग का छिड़ जाना
वो दादी का दिठोना
अम्मा का मनाना
ये मैना का है , ये गौरैया का कौर
कह कह के खिलाना
वो नयी दुल्हनिया को
ये भौजी , ओ भौजी कह के
पीछे पड़े गाँव का हर दीवाना
वो खेतो के मुंडेरो से होके
हर रोज स्कुल जाना
कभी मटर और कभी कच्ची भिन्डी को
तोड़ तोड़ खाना
साँझ होते ही फिर इकठे होकर
रमिया काकी को घेर बैठ जाना
फिर उनका भूतो- पिसाचो का किस्से सुनाना
और रात भर भूतो के डर से थर्र थर्राना
कभी बखोरी चाचा से उनके दुखरे का सुनना
कब और कैसे उनकी रामदुलारी भैसे का
चरते हुए जंगल में खो जाना औ
भरी दुनिया में उनको अकेला कर जाना
कभी मदारी का तमाशा
और कभी सपेरो का बीन से नाग का नचाना
कभी तालाब के कीचड़ में धस के
गबरू जवानों का मछली पकड़ना
फिर बड़े मनुहार से पकोड़े तलवाना
और चाचा , ताऊऔ को बुलाकर जिमवाना
कभी रमजान चाचा के टमटम पे बैठ
शहर घुम के आना
बहुत कुछ कही अनकही
रह गयी है अभी तो
है दिलो में भूली बिसरी यादो की छांव
अब तो है बस फरियादों में गाँव

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